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http://www.kritya.in/0308/hn/poetry_at_our_time.html नीलिमा गर्ग की कविता
कभी यूँ भी आ मेरी आँख में कि मेरी नज़र को ख़बर न हो एक रात नवाज़ दे, मगर उसके बाद सहर न हों वो बड़ा रहीम-ओ-करीम है, मुझे ये सिफ़त भी अता करे तुझे भूलने की दुआ करूँ तो मेरी दुआ में असर न हों* सिफ़त:मेरे बाजुओं में थकी-थकी, अभी मह्व-ए-ख़्वाब हैन उठे सितारों की पालकी, अभी आहटों का गुज़र न हो कभी दिन की धूप में झूम के, कभी शब के फूल को चूम यूँ ही साथ-साथ चलें सदा कभी ख़त्म अपना सफ़र न हो -----गजल --बशीर बद्र
Raah उत्ताल तरंगों को देखकर नही मिलती सागर की गहराई की थाह शांत नजरों को देखकर नही मिलतीनारी मन की राह टुकडों में जीती जिन्दगी पत्नी ,प्रेमिका ,मां अपना अक्स निहारती कितनी है तनहा सूरज से धुप चुराकर सबकी राहें रोशन करती अपने उदास अंधेरों को मन की तहों में रखती सरल सहज रूप को देखकर nahi मिलतीनारी मन की राह

एक नई शुरुवात