शुक्रवार, 1 अगस्त 2008

कभी यूँ भी आ मेरी आँख में
कि मेरी नज़र को ख़बर न हो
एक रात नवाज़ दे, मगर उसके बाद सहर न हों
वो बड़ा रहीम-ओ-करीम है, मुझे ये सिफ़त भी अता करे
तुझे भूलने की दुआ करूँ तो मेरी दुआ में असर न हों*
सिफ़त:मेरे बाजुओं में थकी-थकी,
अभी मह्व-ए-ख़्वाब हैन उठे सितारों की पालकी, अभी आहटों का गुज़र न हो कभी दिन की धूप में झूम के,
कभी शब के फूल को चूम
यूँ ही साथ-साथ चलें सदा कभी ख़त्म अपना सफ़र न हो
-----गजल --बशीर बद्र

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